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Wednesday 25 March 2020

कनाडा से आए व्यक्ति को सोसाइटी से निकाला, मुंबई से बिहार पैदल जाने की सोच रहा ऑटो वाला

मुंबई.देश में कोरोनावायरस संक्रमण केबढ़ते मामले अब लोगों को डराने लगे हैं। पूरा देश ठहर गया है। ट्रेन, बस, फ्लाइट सब बंद हैं। लोग घरों में बंद हैं। महाराष्ट्र, पंजाब और हिमाचल में पहले ही कर्फ्यू लगा दिया गया था। महाराष्ट्र में मंगलवार तक संक्रमण के 107 मामले सामने आ चुके हैं। तीन लोगों की मौत भी हो चुकी है। संक्रमित लोगों को आंकड़ा हर दिन बढ़ रहा है। दूसरी तरफ कर्फ्यू, लॉकडाउन और ट्रांसपोर्ट बंद होने का असर अब आम लोगों के जीवन पर होने लगा है। हम आपको ऐसे ही पांच मामले बताने जा रहे हैं। जहां कनाडा से आए व्यक्ति को लोगों ने सोसायटी में घुसने नहीं दिया, जबकि पब्लिकट्रांसपोर्ट बंद होने के कारण एक ऑटोचालकमुंबई से बिहार तक पैदल या साइकिल से जाने की सोच रहा है।

खौफ: 24 घंटे तक लॉबी में सोया कनाडा से आया व्यक्ति
पुणे के रहने वाले विजेंद्र जोशी ने बताया कि चार फरवरी को टूरिस्ट वीजा पर उनकेदोस्त 55 वर्षीय ब्रायन मेलसन भारत आए।पहले वह मुंबई के अंधेरी में फिर खार के होटल में रहे। बाद में दोनों ही जगहों पर कोरोना के खतरे की बात कहते हुए उन्हें जाने के लिए कहा गया। इसके बाद एक ऑनलाइन पोर्टल के माध्यम से उन्होंने कालीन में एक घर बुक किया। वहां पहुंचे तो सोसाइटी के लोगों ने उन्हें घर में घुसने नहीं दिया। इसके बाद मेलसन को सोसाइटी की लॉबी में 24 घंटे बिताने पड़े। इसके बाद जोशी ने पुणे में उनके रहने का इंतजाम किया। हालांकि, वहां जाने के लिए टैक्सी वाले ने उनसे 14,000 रुपए मांगे। जोशी ने बताया,'मेलसन पिछले 10-15 दिनों से परेशान हैं। हमनें उन्हें सेवन हिल्स हॉस्पिटल में भी शिफ्ट करने का प्रयास किया, साथ ही इस मामले में पुलिस से भी मदद मांगी है।' जोशी ने बताया कि सीनियर इंस्पेक्टर कैलाश आव्हाड ने हमें बताया कि वे उन्हें मेडिकल चेकअप में हेल्प कर सकते हैं लेकिन अगर सोसाइटी वाले उन्हें अंदर नहीं घुसने देते तो हम कुछ नहीं कर सकते हैं।

परोपकार:दूसरों के घरों से खाना जमा कर, भर रहा सड़कों पर रहने वालों का पेट
कई साल तक गांधीसागर झील से शवों को निकालने वाले जगदीश खरे आजकल कोरोनावायरस संक्रमण के कारण रोजो-रोटी खो चुके और फुटपाथ पर रहने वाले लोगों को खाना खिलने का काम कर रहे हैं। खरे ने बताया कि सड़कों पर रहने वाले सैकड़ों लोग मंदिरों, चेरीटेबल ट्रस्ट और स्थानीय लोगों की कृपा से भोजन करते थे। इस महामारी ने सब बंद करवाया दिया है। ऐसे लोग भूखे न रहें इसलिए वे इस तरह का कदम उठा रहे हैं। उन्होंने बताया, 'मैं हर दिन 300 से 400 घरों से खाना जमा करता हूं और फुटपाथ पर रहने वाले लोगों को जाकर देता हूं।'

मजबूरी: पैदल मुंबई से बिहार जाने की सोचने को मजबूर हुआ ऑटो रिक्शा चालक
किराए पर ऑटोरिक्शा चलाने वाले दिलीप बेनबांसी के अनुसार वह 15 साल से यहां रह रहे हैं लेकिन उन्होंने ऐसा लॉकडाउन नहीं देखा। उन्होंने कहा, "मुझे महीने का आवश्यक सामान खरीदने के लिए एक सहयोगी से 2,000 रुपये उधार लेना पड़ा।" जितेंद्र यादव जैसे कई श्रमिक शहर छोड़ना चाहते हैं लेकिन वे फंसे हुए हैं क्योंकि रेलवे और बस सेवाएं बंद कर दी गयी हैं। यादव के अनुसार, "हमारे पास आमदनी का कोई अन्य स्रोत नहीं है और हमारे पास शहर में जीवित रहने के लिए पर्याप्त पैसे भी नहीं है। यदि यह लॉकडाउन जारी रहता है तो हम अपने पैतृक स्थान साइकिल या उससे भी खराब स्थिति में पैदल चलकर जाने के लिए मजबूर होंगे।"

संकट: दिहाड़ी मजदूरों की रोजी रोटी छिनी
कोरोना वायरस के कारण लगे कर्फ्यू ने निर्माण कार्य में लगे श्रमिक रंजन मुखिया (25) की 450 रुपए की दैनिक मजूदरी छीन ली है। बिहार के दरभंगा के निवासी मुखिया उपनगरीय कलीना में निर्माणाधीन इमारत में काम करते हैं। उन्होंने कहा, "मुझे पिछले कुछ दिनों से पैसे नहीं मिले हैं क्योंकि साइट पर काम बंद हो गया है। मेरे ठेकेदार मुझे कुछ आवश्यक चीजें मुहैया करा रहे हैं,जिससे मैं बिना पैसे के रह सकूं।" मुखिया के अनुसार सरकार द्वारा लॉकडाउन की घोषणा किए जाने के बाद से ही मजदूरों का सामूहिक पलायन जारी है। मुखिया जैसे कई दैनिक मजदूर साझा कमरों में रहते हैं और 500 रुपए प्रति माह किराया देते हैं। एक अन्य दिहाड़ी मजदूर रंजीत कुमार यादव ने कहा, "हम जीवित रहने के लिए पैसे उधार ले रहे हैं। हम चाहते हैं कि सरकार कम से कम हमें अपने घर तक जाने में मदद करे।"

मुश्किल: पत्रकारों के सामने आई समाचार संकलन की चुनौतियां
कोरोना संक्रमण के इस काल में मुंबई के पत्रकारों को भी काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ आर्य ने बताया, ‘‘लॉकडाउन या कर्फ्यू की स्थिति में कोरोना पर स्टोरी ढूंढना और अधिकारियों के ऑफिसियल वर्जन लेना बहुत मुश्किल हो गया है। यह एक युद्ध या दंगे की स्थिति से बिलकुल अलग है। 1968 में जब अहमदाबाद में दंगे हुए, सेना को बुलाया गया और पत्रकारों को प्रभावित क्षेत्रों में घूमने के लिए पास दिए गए थे। उस दौर में भी सार्वजनिक परिवहन कभी बंद नहीं हुआ था।’’उन्होंने आगे कहा, ‘‘लोगों को घूमने से रोकने के लिए कर्फ्यू सबसे कारगर तरीका है। 1992-93 में मुंबई दंगों और बम ब्लास्ट में भी कुछ ही इलाकों को बंद किया गया था और उस दौर में भी ट्रांसपोर्ट पर कोई असर नहीं पड़ा था।’’आर्य ने आगे बताया कि 24/7 के इस दौर में एक पत्रकार का जीवन बेहद कठिन है। इस दौर में खबरों का एकमात्र स्रोत आधिकारिक नियंत्रण कक्ष, संबंधित मंत्री या पुलिस ही है। हालांकि, तकनीक और सोशल मीडिया ने जरूर कुछ मदद की है, लेकिन समाचार की पुष्टि मुश्किल हुई है।



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देश में ट्रेन, बस और एयर सेवा बंद कर दिए गए हैं।


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